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रीवा संभाग का पुरातात्विक इतिहास

विन्ध्याचल पर्वत श्रेणी की गोद में फैले हुए विंध्य प्रदेश के मध्य भाग में बसा हुआ रीवा शहर जो मधुर गान से मुग्ध तथा बादशाह अकबर के नवरत्न जैसे – तानसेन एवं बीरबल जैसे महान विभूतियों की जन्मस्थली रही है। कलकल करती बीहर एवं बिछिया नदी के आंचल मेें बसा हुआ रीवा शहर बघेल वंश के शासकों की राजधानी के साथ-साथ विंध्य प्रदेश की भी राजधानी रही है। ऐतिहासिक प्रदेश रीवा विश्व जगत में सफेद शेरों की धरती के रूप में भी जाना जाता रहा है। रीवा शहर का नाम रेवा नदी के नाम पर पड़ा जो कि नर्मदा नदी का पौराणिक नाम कहलाता है। पुरातन काल से ही यह एक महत्वपूर्ण व्यापार मार्ग रहा है। जो कि कौशाबी, प्रयाग, बनारस, पाटलिपुत्र, इत्यादि को पश्चिमी और दक्षिणी भारत को जोड़ता रहा है। बघेल वंष के पहले अन्य शासकों के शासनकाल जैसे गुप्तकाल कल्चुरि वंश, चन्देल एवं प्रतिहार का भी नाम संजोये है।

रीवा विन्ध्य प्रदेश की राजधानी थी, एवं संभागीय मुख्यालय होने के कारण इस क्षेत्र को एक प्रमुख नगर के रूप मे जाना जाता रहा है, तथा संभागीय मुख्यालय के साथ ही इस क्षेत्र का एक प्रमुख ऐतिहासिक नगर है। रीवा नगर पालिक निगम सन 1950 के पूर्व नगर पालिका के रूप में गठित हुई थी, जनवरी 1981 में मध्यप्रदेश शासन द्वारा नगर पालिक निगम का दर्जा प्रदान किया गया। वर्तमान मे रीवा शहर में कुल 45 वार्ड है, जिसमे 6 वार्ड अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति के लिये आरक्षित है, जिसमें वार्ड क्रमांक 1 एवं 43 अनुसूचित जनजाति के लिये तथा वार्ड क्रमांक 28, 38, 39, 40 अनुसूचित जाति के लिये आरक्षित है।

बघेलखण्ड का इतिहास अत्यंत प्राचीन और गरिमामय रहा है। यहां पाषाण काल के चित्रों तथा पत्थर के हथियारों के अवशेष प्राप्त हुये है। महाभारत तथा रामायण काल में इस क्षेत्र का इतिहास स्पष्ट रूप से मिलता है। वाल्मीक रामायण में मैकल प्रदेश और विराट प्रदेश के नाम से इस भू-भाग का उल्लेख मिलता है। बौद्धकाल में यह प्रदेष ‘‘मज्झिम प्रदेश’’ के अंतर्गत था। बघेलखण्ड में सम्राट अशोक द्वारा निर्मित भरहुत के ऐतिहासिक बौद्ध स्तूप है, जिससे स्पष्ट है कि यह क्षेत्र प्रसिद्ध साम्राज्य का अंग था। चैथी तथा पांचवी शताब्दी में यह क्षेत्र मगध के गुप्त सम्राटों के अधीन रहा जिसके पश्चात इस क्षेत्र में कल्चुरी, चेदि तथा हैहय वंष के राजाओं ने राज्य किया। ईसा के बारहवीं शताब्दी तक कल्चूरी राजा इस क्षेत्र के भाग्य विधाता रहे, तत्पश्चात लगभग 100 वर्षों तक यह क्षेत्र चैहानों, सेंगरों तथा गोड़ों के हाथो में रहा। तेरहवीं शताब्दी में इस क्षेत्र पर बघेल राजपूतों का अधिपत्य हुआ।

 

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