सोलह संस्कार – 1 गर्भाधान संस्कार
इस संसार में प्रमुख तथा श्रेष्ठ मानव प्राणी की उत्पत्ति सुदृढ़, सतेज तथा दीर्घायु होने के लिए यथाविधि तथा यथा समय बीज स्थापन करना चाहिए । इसी का नाम गर्भाधान है । गर्भ = बीज और आधान = स्थापना ।
गर्भाधानकाल – गर्भाधान के समय वधू १६ वर्ष से अधिक वय की तथा सज्ञान होनी चाहिए । वह प्रथम रजोदर्शन से तीन वर्षो तक (३६ बार) रजोदर्शन से शुद्ध हो चुकी होनी चाहिए । वर की आयु वधू की आयु से ड्योढी से दो गुनी तक अधिक होनी चाहिए । चतुर्थी कर्म (गर्भाधान) विवाह के चौथे दिन करना चाहिए । परन्तु उस दिन यथोक्त ऋतुकाल न हो अथवा अन्य कोई अड़चन हो तो अन्य कोई ऋतुकाल का शुभ दिन देखकर, उस दिन गर्भाधान संस्कार करना चाहिए । स्त्रियों का यथोक्त ऋतुकाल अर्थात गर्भाधान करने का समय रजोदर्शन से १६ दिन तक की अवधि का होता है । इस ऋतुकाल के १६ दिनों में से प्रथम रजस्राव की निंद्य, दूषित रोगकारक तथा उष्ण ४ राते तथा शरीरस्थ धातु को दूषित रखने वाली ११वी और १३वी राते इस प्रकार कुल ६ राते वर्ज्य करे । शेष १० रातों को यथोक्त ऋतुकाल की समझना चाहिए । अर्थात् ५-६-७-८-९-१०-१२-१४-१५-१६ वी राते समझनी चाहिए । परन्तु इनमें अमावस्या अथवा पूर्णमासी हो, तो वह रात भी वर्ज्य करनी चाहिए । शेष ऋतुकाल की रातों में से किसी एक दिन गर्भाधान संस्कार करना चाहिए ।
विधि उपर कहे गये अनुसार उचित गर्भाधान दिन की योजना करनी चाहिए । यह दिन आने तक विवाह संस्कार में कहे अनुसार यज्ञकुण्ड तथा वधू-वर को बैठने के लिए एक शुभ आसन ये दोनों तैयार होने चाहिए ।
यज्ञकुण्ड – मंडप में अथवा घर में स्वच्छ, वायुयुक्त, प्रकाशयुक्त, लम्बे चौड़े विस्तीर्ण, समतल भूपृष्ठ पर बनाय २४ अंगुल लम्बी, २४ अंगुल चौड़ी भूमि लेकर उसके चारो ओर ८ अंगुल ऊंची तथा ३ अंगुल चौडी एक मेखला (सोपान) दीवाल जैसी, चिकनी मिट्टी की बनाये । तत्पश्चात इस सोपान के नीचे बाहर से चार अंगुल पर, तीन अंगुल चौड़ा दूसरा सोपान बनाये । इसके अनन्तर इस सोपान के नीचे तीन अंगुल पर दो अंगुल चौड़ा तथा दो अंगुल ऊंचा तीसरा सोपान बनाये । इस प्रकार भूपृष्ठ भाग पर ७ अंगुल गहरा, २४ अंगुल लम्बा २४ अंगुल चौड़ा कुण्ड होगा जिसके बाहर से चारों ओर भूपृष्ठ भाग से ऊपर २,३,४ अंगुल के समान ऊंचाई-चौड़ाई के तीन-तीन सोपान होंगे । विवाह, उपनयन और समावर्तन के समय ऐसे कुण्डो की योजना करनी चाहिए । पुंसवनादि अन्य मंगल-संस्कारों मे भो उपर्युक्त विवाहादि के लिये निर्मित यज्ञकुंड के सदृश ही बनाना चाहिये । परन्तु भूमि २४ अंगुल के स्थान पर १२ अंगुल लम्बी चौड़ी लेकर उसके चारो ओर पूर्व की भांति बाहर से ३-३ सोपान भूपृष्ठ भाग से क्रमशः २-३-४ अंगुल की समान ऊंचाई और चौड़ाई के बनाये ।
ये यज्ञकुण्ड मंडप में अथवा घर में ऐसे स्थान पर होने चाहिए कि वधु-वरादि कार्य करने वाले को उस कुण्ड के निकट पूर्व की ओर मुह करके बैठने के लिये तथा इनके आगे, पार्श्व में, कार्य में सम्मिलित होने वाले लोगों के लिये विस्तीर्ण स्थान हो ।
होम द्रव्य – इसमें ईंधन और आहुति इस प्रकार दो द्रव्य होते है । ईंधन द्रव्य अर्थात् यज्ञाग्नि-प्रज्वलित करने के लिए उपयुक्त काष्ठ और तृण । काष्ठ यज्ञीय वृक्षों का होना चाहिए । चन्दन, पलाश और खैर ये मुख्य यज्ञीय वृक्ष है । इन वृक्षों के अभाव में बहेडा, लोध, हिंगणबेट नीम, अमलतास, सेहुड़ (थूहर), सेमल, पिपली, गूलर, आम, नार, लिसोड़ा वृक्षो को छोड़कर शेष वट, पीपल, पीपली, गूलर, आम, बेल, अपामार्ग, देवदारु, सुरु, शाल, शमी इत्यादि वृक्षों को यज्ञीय समझना चाहिए । यज्ञीय काष्ठ की भांति कुश और दर्भ मुख्य यज्ञीय तृण है । इनके अभाव में कुश घास, सर, मुंज देवनळ नड, मोळ, लळ्हाक इन तृणों को छोड़कर शेष सब तृण यज्ञीय समझना चाहिए । इस प्रकार के उपलब्ध यज्ञीय वृक्षों की लकड़ी ईंधन के लिए (कुण्डस्थ अग्नि प्रदीप्त करने के लिए) यज्ञकुण्ड के प्रमाणानुसार, कीटक और पर्ण रहित लेनी चाहिए । कुशादि तृण अग्रयुक्त, मूलरहित, अलग-अलग (एक दूसरे में उलझे न हो) एक बालिश्त लम्बाई के लेने चाहिए ।
द्रव्याहुति का प्रमाण – हाथ की कुहनी से कनिष्ठिकाग्र तक लम्बी और अंगूठे के पोर के बराबर मुंहवाली, खैर वृक्ष की या कांस्य की स्रुवा (करछी) दाहिने हाथ के अंगूथे, मध्यमा और अनामिका से पकडकर, इस स्रुवा से घृत, क्षीर आदि द्रव पदार्थों की आहुति दे । व्रीहि चरु आदि शुष्क पदार्थ दाहिने हाथ के अंगूठे, मध्यमा और अनामिका से (इन तीनो उंगलियों मे जितना आ सके) लेकर उसकी एक-एक आहुति दे । धान और ज्वार की खील की आहुति का प्रमाण अंजली है ।
अब समिधा अर्थात पूर्वोक्त यज्ञीय वृक्षों की विशेषरूप से चन्दन की कीटकों तथा पत्तों से रहित, जो फटी न हो कम से कम अंगूठे के बराबर मोटी, दस अंगुल लम्बी तोड़ी हुई लकड़ी लेनी चाहिये । पूर्वोक्त स्रुवा की भांति अंगूठे, मध्यमा और अनामिका के अग्रभाग से समिधा पकड़कर आहुति दे ।
अनुसार ईंधन द्रव्यादि सब होम सामग्री की तैयारी कर लेनी चाहिए । तत्पश्चात सुनियोजित दिन प्रातःकाल सूर्योदय के पूर्व वधू-वर शुद्ध अभ्यंग स्नान करके उत्तम वस्त्र परिधान करे । वे पूर्वोक्त शुभ आसन पर (वर की दक्षिण ओर वधू पूर्व की ओर मुंह करके बैठे ।
ईश्वरोपासना
सर्वशक्तिमान, जगन्नियन्ता परमपिता परमात्मा गणपति सृष्टि के स्वामी है । गर्भाधानादि प्रत्येक शुभ संस्कार विधि के प्रारम्भ तथा अन्त में कार्य सिद्धि के लिए हमें वेदमन्त्रों से परमात्मा की स्तुति, प्रार्थना और उपासना करनी चाहिए । वे मन्त्र-
ॐ भूर्भुवः स्वः
प्रत्येक वेदमन्त्र के प्रारम्भ में उपर्युक्त प्रणव और व्याहति का उच्चारण करके मन्त्र पढ़ना चाहिए ।
ऋग्वेद
अग्निमीळे पुरोहितं यज्ञस्य देवमृत्विजम् ।
होतारं रत्नधातमम् ॥१॥
तमीशानं जगतस्तस्थुषस्पति धियञ्जिन्वमवसे हूमहे वयम् ।
पूषा नो यथा वेदसामसद्वृधे रक्षिता पायुरदब्धः स्वस्तये ॥२॥
नमो दिवे बृहुते रोदसीभ्यां मित्रायं वोचं वरुणाय मीळ्हुषे
सुमृडी कायमीळहुषे । इन्द्रमग्निमुपं स्तुहि द्युक्षमर्यमणं भगम् ।
ज्योग्जीवन्तः प्रजया सचेमहि सोमस्योती संचेमहि ॥३॥
गणानां त्वा गणपतिं हवामहे कविं कवीनामुपमश्रवस्तमम् ।
ज्येष्ठराजं ब्रह्मणां ब्रह्मणस्पत आ नः शॄण्वन्नूतिभिः सीद सादनम् ॥४॥
स्वस्ति नो मिमीतामश्विना भगः स्वस्ति देव्यदितिरनर्वणः ।
स्वस्ति पूषा असुरो दधातु नः स्वस्ति द्यावापृथिवी सुंचेतुना ॥५॥
स्वस्ति मित्रावरुणा स्वस्ति पथ्ये रेवति ।
स्वस्ति न इन्द्रश्चाग्निश्च स्वस्ति नो अदिते कृधि ॥६॥
स्वस्तये वायुमुष ब्रवामहै सोमं स्वस्ति भुवनस्य यस्पतिः ।
बृहस्पतिं सर्वगणं स्वस्तये स्वस्तयं आदित्यासो भवन्तु नः ॥७॥
शं नो भव चक्षसा शं नो अह्ना शं भानुना शं हिमा शं घृणेनं ।
यथा शमध्वञ्छ्मसंद् दुरोणे तत्सूर्य द्रविणं धेहि चित्रम् ॥८॥
शं नो द्यावापृथिवी पूर्वहूतौ शमन्तरिक्षं दृशयें नो अस्तु ।
शं न ओषधीर्वनिनो भवन्तु शं नो रजंसस्पतिरस्तु जिष्णुः ॥९॥
समानी व आकूतिः समाना ह्रदयानि वः ।
समानमस्तु वो मनो यथा वः सुसहासति ॥१०॥
यजुर्वेद
इषे त्वोर्ज्जे त्वा वायवं स्थ देवो वः सविता प्रार्पयतु श्रेष्ठ तमाय कर्मण आप्यायध्व मघ्न्या इन्द्राय भागं प्रजावतीरनमिवा अयक्ष्मा मा व स्तेन ईशत माघश सो ध्रुवा अस्मिन् गोपतौस्यात बह्विर्यजमानस्य पशून् पाहि ॥१॥
नमो हिरण्यबाहवे सेनान्ये दिशां च पतये नमो नमो वृक्षेभ्योहरिकेशेभ्यः पशूनां पतये नमः शष्पिञ्जंराय त्विषीमते पथीनां पतये नमो नमो हरिंकेशायोपवितिनें पुष्टानां पतये नमः ॥२॥
नमो गणेभ्यो गणपतिभ्यश्च वो नमो नमो व्रातेभ्यो व्रातंपतिभ्यश्च वो नमो नमो गृत्सेभ्यों गृत्संपतिभ्यश्च वो नमो नमो विरूपेभ्यो विश्वरूपेभ्यश्च वो नमः ॥३॥
नमः शम्भवायं च मयोभवायं च नमः शंकराय च मयस्कराय च नमः शिवाय च शिवतराय च ॥४॥
ऋचं वाचं प्र पद्ये मनो यजुः प्र पद्ये साम प्राणं प्र पद्ये चक्षुः श्रोत्रं प्र पद्ये । वागोजः सहौजो मयि प्राणापानौ ॥५॥
द्यौः शान्तिरन्तरिक्ष शान्तिः पृथिवी शान्तिरापः शान्तिरोषधयः शान्तिः ।
वनस्पतयः शान्तिर्विश्वेदैवाः शान्तिर्ब्रह्म शान्तिः सर्व शान्तिः शान्तिरेव शान्तिः सा मा शान्तिरेधि ॥६॥
अहानि शं भवन्तु नः श रात्रीः प्रति धीयताम् । शं न इन्द्राग्नी भवतामवोभिः शं न इन्द्रावरुणा रातहव्या ।
शं न इन्द्रापूषणा वाजसातौ शमिन्द्रासोमा सुविताय शंयोः ॥७॥
दृते ह ह मा मित्रस्यं मा चक्षुषा सर्वाणि भूतानि समीक्षन्ताम् । मित्रस्याहं चक्षुषां सर्वाणि भूतानि समीक्षे । मित्रस्य चक्षुषा समीक्षामहे ॥८॥
यतो यतः समीहसे ततो नोऽअभंयं कुरु । शं नः कुरु प्रजाभ्योऽभयं न पशुभ्यः ॥९॥
हिरण्मयेन पात्रेण सत्यस्यापिहित मुखम् । योऽसावादित्ये पुरुषः सोऽसावहम् । ओऽम् खं ब्रह्म ॥१०॥
सामवेद
अग्न प्रा याहि वीतये गृणानो हव्यदातये ।
निहोता सत्सि बर्हिषि ॥१॥
स नः पवस्व शं गवे शं जनाय शमर्वते ।
श राजन्नोषधीभ्यः ॥२॥
स्वायुधः पवते देवं इन्दुरशस्तिहा वृजना रक्षमाणः ।
पिता देवानां जनिता सुदक्षो विष्टम्भो दिवो धरुणः पृथिव्याः ॥३॥
न त्वावा अन्यो दिव्यो न पार्थिवो न जातो न जनिष्यते ।
अश्वायन्तो मघवन्निन्द्र वाजिनो गव्यन्तस्त्वा हवामहे ॥४॥
त्व हि नः पिता वसो त्वं माता शतक्रतो बभूविथ ।
अथा ते सुम्नमीमहे ॥५॥
त्व वरुन उत मित्रो अग्ने त्वां वर्धन्ति मतिभिर्वसिष्ठाः ।
त्वे वसु सुषणनानि सन्तु, यूय पात स्वस्तिभिः सदा नः ॥६॥
यत इन्द्र भयामहे ततो नो अभयं कृधि ।
मघवञ्छग्धि तव तन्न ऊतये वि द्विषो विं मृधों जहि ॥७॥
त्व हि राधसस्पते राधसो महः क्षयस्मासि विधर्ता ।
तं त्वा वयं मघवन्निन्द्र गिर्वणः सुतावन्तो हवामहे ॥८॥
भदं कर्णेभिः श्रुणुयाम देवा भद्रं पश्येमाक्षभिर्यजत्राः ।
स्थिरैरङ्गैस्तुष्टुवासस्तनूभिर्व्यशेमहि देवहितं यदायुः ॥९॥
स्वस्ति न इन्द्रो वृद्धश्रवाः स्वस्ति नः पूषा विश्ववेदाः ।
स्वस्ति नस्तार्क्ष्यो अरिष्टनेमिः स्वस्ति नो बहस्पतिर्दधातु ।
ओऽम । स्वस्ति नो बृहस्पतिर्दधातु ॥१०॥
अथर्ववेद
ये तिंषप्ताः परियन्ति विश्वा रूपाणि विभ्रतः ।
वाचस्पतिर्बला तेषां तन्वो अद्य दधातु मे ॥१॥
शान्तानि पूर्व रूपाणि शान्तं नो अस्तु कृताकृतम् ।
शान्तं भुतं च भव्यं च सर्वमेव शमस्तु नः ॥२॥
इयं या परमेष्ठिनी वाग्देवी ब्रह्मं संशिता ।
ययैव समूजे घोरं तयैव शान्तिरस्तु नः ॥३॥
इदं यत्परंमेष्ठिनं मनो वा ब्रह्म संशितम् ।
येनैव समृजे घोरं तेनैव शान्तिरस्तु नः ॥४॥
इमानि यानि पञ्चेंन्द्रियाणि मनः षष्ठानि मे ह्रदि ब्रह्मणा संशितानि ।
यैरैव समृजे घोरं तैरेव शान्तिरस्तु नः ॥५॥
शंनो ग्रहाश्चान्द्रमसाः शमादित्याश्च राहुणा ।
शंनो मृत्युर्घूमकेतुः शं रुद्रास्तिग्मतेजसः ॥६॥
शं रुद्रा शं वसवः शमादित्या शमग्नयः ।
शं नो मह ऋषयो देवाः शं देवीः शं बृहस्पतिः ॥७॥
पृथिवी शान्तिरन्तरिंक्ष शान्तिर्द्यौः शान्तिरापः शान्तिरोषधयः शान्तिः वनस्पतयः
शान्तिर्विश्वे मे देवाः शान्तिः सर्वे मे देवाः शान्तिः शान्तिः शान्तिभिः ।
ताभिः शान्तिभिः सर्व शान्तिभिः शमयाम्यहं यदिह घोरं यदिह क्ररं यदिह पापं तच्छान्तं तच्छिवं सर्वमेव शमस्तु नः ॥८॥
पश्येम शरदः शतम् । जीवें शरदः शतम् ।
बुध्येम शरदः शतम् । रोहेम शरदः शतम् ।
पुष्येंम शरदः शतम् । भवेम शरदः शतम् ।
भूषेम शरदं शतम् । भूयसीः शरदः शतात ॥९॥
पनाय्यं तदश्विना कृतं वा वृषभो दिवो रजसः पृथिव्याः ।
सहस्त्रं शंसा उत ये गविष्टौ सर्वां इत्ताँ उपयात षिबध्ये ॥१०॥तक लिखे हुए ‘अग्निमीळे०’ इत्यादि चतुर्वेदोक्त मन्त्रों से पुरोहित सहित ईश्वरोपासना करे । कार्यार्थ आए हुए लोग भी इस उपासना पर एकाग्र चित्त होकर ध्यान दे ।